मित्रता

                              मित्रता

    क्षमा ,दया ,भय ,त्याग,तपस्या,
    अभिमान को जिसने त्याग दिया,
   उसी ने मित्रधर्म को स्वीकार किया ।


      आँखों मे देखकर हृदय की गति 
                 को जान लिया,
    खुशी के आँसू , दुःख के आँसू को बाँट                        लिया,
    मानो मित्रता के बंधन में खुद को बांध                            लिया ।


  राजा - रंक  और जाती - पाती का कोई                          भेद नही,
      जो मिला वही सहर्ष स्वीकार किया ,
            जो यह मर्म को जान  लिया,
 मानो मित्रता के बंधन में खुद को स्वीकार                            किया ।


          हार  सुनिश्चित देखकर भी ,
     कर्ण ने  न  छोड़ा दुर्योधन का साथ,
      इस पावन पवित्र मित्रता के धर्म को,
     सारा जग ने मान किया सम्मान किया 
 और मित्रता के बंधन को स्वीकार किया ।


        करके  समर्पण मन और तन को,
       बांध लो खुद को मित्रता के बंधन में
         जैसे सुग्रीव ने राम को बांध लिया ।


    मित्रता के इस पवित्र बंधन में जो भी
       कृष्ण - सुदामा के तरह बांध लिया ,
   वो बिना जलयान के भवसागर को पार                             किया ।


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