Sanskrit shlokas with Hindi meaning | संस्कृत श्लोक हिंदी सहित

मैं संस्कृत(Sanskrit) श्लोक पोस्ट कर रहा  हुँ क्योंकि संस्कृत (Sanskrit) में श्लोक का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है । संस्कृत (Sanskrit)को सभी भाषाओ के जननी माना जाता है, संस्कृत (Sanskrit)दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा है,  संस्कृत (Sanskrit)भाषा  की महानता  संस्कृत की श्लोक (Sanskrit ke achhe slokas) से है देश में संस्कृत(Sanskrit) भाषा को देव भाषा की उपाधि भी दिया गया है पुराने समय से ही संस्कृत श्लोको(Sanskrit shlokas) के आधार पर मानव रहा है। 

इस आलेख के माध्यम से आप प्रेरणादायक श्लोक,चाण्क्य नीति श्लोक(Chanakya niti shlokas), भर्तृहरी श्लोक(Bhartrihari shlokas), नीतिषतकम के श्लोक(Niti shatkam shlokas) रामायण के कुछ श्लोक(Ramayan shlokas), कर्म पर कुछ श्लोक(Karma shlokas) , परोपकार पर कुछ श्लोक(paropkar shlokas),घमंड पर श्लोक(Ghamand shlokas) तथा वीरता पर कुछ श्लोक समाहित है,जिसे पढ़कर आप जीवन बदलने की कोशिश कर सकते है ।
अगर आप भारतीय है तो आपको संस्कृत श्लोक (Sanskrit Shlokas) का ज्ञान अवश्य होना चाहिए मनुष्य जाती के लिए संस्कृत हमारे जीवन का एक अनमोल हिस्सा रहा है पुराने समय से ही ऋषि-मुनियों ने  संस्कृत भाषा (sanskrit slokas) में बेहतरीन श्लोक लिखे है। जिसमे जीवन का सार है पहले इसी के माध्यम से गुरुकुल में पढ़ाया जाता था और उसी को राजा - महाराजा अपने दैनिक जीवन में उपयोग किया करते थे । राजा - महाराजा अपने  राज काज और न्याय के लिए अपने इसी श्लोक के आधरित ज्ञान का उपयोग किया करते थे । इस श्लोक के आधार पर आप जीवन के जीने का तरीका सिख सकते है ।
आज इस संस्कृत श्लोक (Sanskrit shlokas)के माध्यम  से बहुत कुछ सिख सकते है और अपने जीवन जीने की दिनचर्या में बदलाव लाकर जीवन सफल कर सकते है ।
आप इस श्लोक के माध्यम से  ये सब चीजे सिख सकते है ।
Table of Content :-
1)जीवन जीने की कला और लोगों के बीच में कैसा बर्ताव करना है ।
2) विद्या का क्या महत्व है और विद्वान किन  वजहों से पूजा जाता है ?
3) साधु किसे कहते है ,साधु की संगति क्यो महत्वपूर्ण है ?
5) धर्म क्या है, धर्म का क्या महत्व है ।
6)विद्वान कौन है,उसको सभी जगह क्यो पूजा जाता है ?
7) जीवन मे सफलता के सूत्र क्या है ?
8) राजा कौन है और उसकी क्या परिभाषा है ।

Sanskrit shlokas with Hindi meaning

                          श्लोक अर्थ सहित

1.


सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात सत्यं प्रियम।

प्रियं च नानृतं ब्रूयात एष धर्म: सनातन:।।


श्लोकार्थ : - सत्य बोलो, प्रिय बोलो,अप्रिय लगने वाला सत्य नहीं बोलना चाहिये। प्रिय लगने वाला असत्य भी नहीं बोलना चाहिए।


2.


माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।

न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।


श्लोकार्थ

: - जो माता पिता अपने बच्चो को शिक्षा से वंचित रखते हैं, ऐसे माँ बाप बच्चो के शत्रु के समान है। जैसे

हंसो के बीच एक बगुले होता है ठीक उसी तरह  विद्वानों की सभा में अनपढ़ व्यक्ति कभी सम्मान नहीं पा सकता ।


                                   3

कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य न सिद्धति।

उत्तीर्णे च परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम्।।


श्लोकार्थ

: - जब तक काम पूरे नहीं होते हैं तब तक लोग दूसरों की प्रशंसा करते हैं। काम पूरा होने के बाद लोग दूसरे व्यक्ति को भूल जाते हैं। ठीक उसी तरह जैसे नदी पार करने के बाद नाव का कोई उपयोग नहीं रह जाता है।


4


धर्म-धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात्प्रभवते सुखम् ।

धर्मण लभते सर्वं धर्मप्रसारमिदं जगत् ॥


श्लोकार्थ

: -

धर्म से ही धन, सुख तथा सब कुछ प्राप्त होता है । इस संसार में धर्म ही सार वस्तु है ।


5


श्लोकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः ।

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥

श्लोकार्थ

: - जो करोडो ग्रंथों में कहा है, वह मैं आधे श्लोक में कहता हूँ; परोपकार पुण्यकारक है, और दूसरे को पीडा देना पापकारक है ।


6


परोपकारशून्यस्य धिक् मनुष्यस्य जीवितम् ।

जीवन्तु पशवो येषां चर्माप्युपकरिष्यति ॥


श्लोकार्थ

  : - परोपकार रहित मानव के जीवन को धिक्कार है । उससे अच्छा तो वो पशु धन्य है, जिनके मरने के बाद भी  चमडा उपयोग में आता है ।


7


रविश्चन्द्रो घना वृक्षा नदी गावश्च सज्जनाः ।

एते परोपकाराय युगे दैवेन निर्मिता ॥


श्लोकार्थ

: सूर्य, चन्द्र, बादल, नदी, गाय और सज्जन – ये हरेक युग में ब्रह्मा ने परोपकार के लिए निर्माण किये हैं ।


8


परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः परोपकाराय वहन्ति नद्यः ।

परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकारार्थ मिदं शरीरम् II


श्लोकार्थ

: - परोपकार के लिए वृक्ष फल देते हैं, नदीयाँ परोपकार के लिए ही बहती हैं और गाय परोपकार के लिए दूध देती हैं अर्थात् यह शरीर भी परोपकार के लिए ही है ।
                                    9

संसारकटुवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे ।

सुभाषितरसास्वादः सङ्गतिः सुजने जने ॥


श्लोकार्थ

: - संसार रूपी कड़ुवे पेड़ से अमृत तुल्य दो ही फल उपलब्ध हो सकते हैं, एक है मीठे बोलों का रसास्वादन और दूसरा है सज्जनों की संगति ।


10


न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।

हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एव अभिवर्तते ॥


श्लोकार्थ

: -

मनुष्य की इच्छा कामनाओं के अनुरूप सुखभोग से नहीं तृप्त होती है । यानी व्यक्ति की इच्छा फिर भी बनी रहती है । असल में वह तो और बढ़ने लगती है, ठीक वैसे ही जैसे आग में घी डालने से वह अधिक प्रज्वलित हो उठती है ।


11


लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रजायते ।

लोभान्मोहश्च नाशश्च लोभः पापस्य कारणम् ॥


श्लोकार्थ : - लोभ से क्रोध का भाव उपजता है, लोभ से कामना या इच्छा जागृत होती है, लोभ से ही व्यक्ति मोहित हो जाता है और विवेक खो बैठता है, और वही व्यक्ति के नाश का कारण बनता है । अतः लोभ समस्त पाप का कारण है ।


12


दानं भोगं नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।

यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतिया गतिर्भवति ॥


अर्थात : धन की गति तीन प्रकार की होती है । पहली है उसका दान, दूसरी उसका भोग, और तीसरी है उसका नाश । जो व्यक्ति उसे न किसी को देता है और न ही उसका स्वयं भोग करता है, उसके धन की तीसरी गति होती है, अर्थात् उसका नाश होना है तय है ।


13


दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयो न कर्तव्यः ।

पश्येह मधुकरिणां सञ्चितमर्थं हरन्त्यन्ये ॥


अर्थ : - धन दूसरों को दिया जाना चाहिए, अथवा उसका स्वयं भोग करना चाहिए , किंतु उसका संचय नहीं करना चाहिए । ठीक उसी तरह जैसे मधुमक्खियों के द्वारा संचित धन अर्थात् शहद दूसरे हर के ले जाते हैं ।


14


शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्।

न शोचन्ति नु यत्रता वर्धते तद्धि सर्वदा॥


अर्थ :- जिस कुल में बहू-बेटियां क्लेश भोगती हैं वह कुल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। किन्तु जहाँ उन्हें किसी तरह का दुःख नहीं होता वह कुल सर्वदा बढ़ता ही रहता है।


15


विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन ।

स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥


अर्थ :- विद्वान और राजा की कोई तुलना नहीं हो सकती है । क्योंकि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है, जबकि विद्वान जहाँ-जहाँ भी जाता है वह हर जगह सम्मान पाता है ।


16


यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥


अर्थ : - जिस कुल में स्त्रीयाँ पूजित होती हैं, उस कुल से देवता  भी प्रसन्न होते हैं। जहाँ स्त्रीयों का अपमान होता है, वहाँ सभी ज्ञान और  कर्म निष्फल होते हैं।


17


यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् ।

तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि ॥


अर्थ :- वह व्यक्ति जो विभिन्न देशों में घूमता है और विद्वानों की सेवा करता है । उस व्यक्ति की बुद्धि का विस्तार उसी तरह होता है, जैसे तेल का बून्द पानी में गिरने के बाद फैल जाता है ।


18


न ही कश्चित् विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।

अतः श्वः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्॥


अर्थ : - कल क्या होगा यह कोई नहीं जानता है इसलिए कल के करने वाले  कार्य को आज कर लेने वाला ही बुद्धिमान है ।


19


नारिकेलसमाकारा दृश्यन्तेऽपि हि सज्जनाः।

अन्ये बदरिकाकारा बहिरेव मनोहराः॥


अर्थ :- सज्जन व्यक्ति नारियल के समान होते हैं, अन्य तो बदरी फल के समान केवल बाहर से ही अच्छे लगते हैं ।


20


उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम्।

सोत्साहस्य च लोकेषु न किंचिदपि दुर्लभम्॥


अर्थ :- उत्साह श्रेष्ठ पुरुषों का बल है, उत्साह से बढ़कर और कोई बल नहीं है। उत्साहित व्यक्ति के लिए इस संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।


21


एकोधर्मः परं श्रेयः क्षमैका शांतिरुत्तमा l

 विद्यैका परमा तृप्तिः अहिंसैका सुखावहा॥


अर्थ :- एक ही धर्म श्रेठ एवं कल्याणकारी होता है । शान्ति का सर्वोत्तम रूप क्षमा है, सबसे बड़ी तृप्ति विद्या से प्राप्त होती है तथा अहिंसा सुख देने वाली होती है ।


22


अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहुभाषते।

अविश्वस्ते विश्वसिति मूढ़चेता नराधमः॥


अर्थ : - जो व्यक्ति बिना बुलाए किसी के यहाँ जाता है और बिना पूछे अधिक बोलता है और  साथ ही जिस पर विश्वास न किया जाये उसपर भी विश्वास करता है, उसे ही मुर्ख , तथा अधम(नीच) पुरुष कहा गया है ।


23


अभिवादनशीलस्य नित्यं वॄद्धोपसेविन:।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥


अर्थ :- विनम्र और नित्य अनुभवियों की सेवा करने वाले में चार गुणों का विकास होता है – आयु, विद्या, यश और बल ।


24


धॄति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥


अर्थ :-  धर्म के दस लक्षण हैं – धैर्य, क्षमा, आत्म-नियंत्रण, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रिय-संयम, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना ।


25


             लोभमूलानि पापानि संकटानि तथैव च ।

लोभात्प्रवर्तते वैरं अतिलोभात्विनश्यति॥


अर्थ : लोभ और पाप  सभी संकटों का मूल कारण है, लोभ शत्रुता में वृद्धि करता है, अधिक लोभ करने वाला विनाश को प्राप्त होता है ।


26


सत्संगत्वे निस्संगत्वं,निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।

निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं,निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः॥


अर्थ :- सत्संग से वैराग्य, वैराग्य से विवेक, विवेक से स्थिर तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।


27


विद्या मित्रं प्रवासेषु ,भार्या मित्रं गृहेषु च ।

व्याधितस्यौषधं मित्रं , धर्मो मित्रं मृतस्य च ॥


अर्थ :- यात्रा के समय ज्ञान एक मित्र की तरह साथ देता हैं घर में पत्नी एक मित्र की तरह साथ देती हैं, बीमारी के समय दवाएँ साथ निभाती हैं और अंत समय में धर्म सबसे बड़ा मित्र होता हैं ।


28


वयसि गते कः कामविकारः,शुष्के नीरे कः कासारः।

क्षीणे वित्ते कः परिवारः,ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥


अर्थ : - आयु बीत जाने के बाद काम भाव नहीं रहता, पानी सूख जाने पर तालाब नहीं रहता, धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता और तत्त्व ज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता ।


29


सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।

वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ॥


अर्थ :-  जल्दबाजी में कोई भी  कार्य नहीं करना चाहिए क्यूंकि बिना सोचे किया गया कार्य घर में विपत्तियों को आमंत्रण देता हैं और जो व्यक्ति सहजता से सोच समझ कर विचार करके अपना काम करते हैं लक्ष्मी भी उनका स्वयं ही उनका चुनाव कर लेती हैं ।


30


श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन , दानेन पाणिर्न तु कंकणेन ,

विभाति कायः करुणापराणां , परोपकारैर्न तु चन्दनेन ॥


अर्थ  : - कुंडल पहन लेने से कानों की शोभा नहीं बढ़ती,कानों की शोभा शिक्षा प्रद बातों को सुनने से बढ़ती हैं । उसी प्रकार हाथों में कंगन धारण करने से वे सुन्दर नहीं होते उनकी शोभा शुभ कार्यों अर्थात दान देने से बढ़ती हैं । परहित करने वाले सज्जनों का शरीर भी चन्दन से नहीं अपितु परहित मे किये गये कार्यों से शोभायमान होता हैं ।


31


चन्दनं शीतलं लोके ,चन्दनादपि चन्द्रमाः ।

चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ॥


अर्थ : - चन्दन को संसार में सबसे शीतल लेप माना गया हैं लेकिन कहा जाता हैं चंद्रमा उससे भी ज्यादा शीतलता देता हैं लेकिन इन सबके अलावा अच्छे मित्रो का साथ सबसे अधिक शीतलता ऐवं शांति देता हैं ।


32


आलसस्य कुतो विद्या , अविद्यस्य कुतो धनम् ।

अधनस्य कुतो मित्रम् , अमित्रस्य कुतः सुखम् ॥


अर्थ : - जो आलस करते हैं उन्हें विद्या नहीं मिलती, जिनके पास विद्या नहीं होती वो धन नहीं कमा सकता,और जो निर्धन हैं उनके मित्र नहीं होते और मित्र के बिना सुख की प्राप्ति नहीं होती ।


33


अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् ।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥


अर्थ :- तेरा मेरा करने वाले लोगो की सोच उन्हें बहुत कम कर देती हैं उन्हें छोटा बना देती हैं जबकि जो व्यक्ति सभी का हित सोचते हैं वे उदार चरित्र के हैं उनके लिए पूरा संसार ही उसका परिवार होता हैं ।


34


यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् ।

एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ॥


अर्थात : जिस प्रकार  रथ कभी एक पहिये पर नहीं चल सकता हैं  ठीक उसी प्रकार पुरुषार्थ विहीन व्यक्ति का भाग्य सिद्ध नहीं होता ।


35


आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।

नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।


अर्थ :-  मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन उसमे बसने वाला आलस्य हैं । मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र उसका परिश्रम हैं जो हमेशा उसके साथ रहता हैं इसलिए वह दुखी नहीं रहता ।


36


सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति , विद्यार्थिनः सुखम् I 

सुखार्थी वा त्यजेत् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्॥


अर्थ :- सुख चाहने वाले से विद्या हमेशा दूर रहती है और विद्या चाहने वाले से सुख। इसलिए जिसे सुख चाहिए, वह विद्या को छोड़ दे और जिसे विद्या चाहिए, वह सुख को छोड़ दे ।


37

यो नोद्धतं कुरुते जातु वेषं न पौरुषेणापि विकत्थतेऽन्त्यान्।

न मूर्च्छितः कटुकान्याह किञ्चित् प्रियंसदा तं कुरुते जनो हि ॥


अर्थ :- जो व्यक्ति शैतानों जैसा वेश नहीं बनाता ,वीर होने पर भी अपनी वीरता की बड़ाई नही करता  और क्रोध् से विचलित होने पर भी कड़वा नहीं बोलता वैसे व्यक्ति से सभी प्रेम करते हैं ।


38


अनर्थकं विप्रवासं गृहेभ्यः पापैः सन्धि परदाराभिमर्शम् ।

दम्भं स्तैन्य पैशुन्यं मद्यपानं न सेवते यश्च सुखी सदैव ॥


अर्थ : जो व्यक्ति अकारण घर से बाहर नहीं रहता ,बुरे लोगों की संगत से बचता है ,परस्त्री से संबध नहीं रखता ;चोरी ,चुगली ,पाखंड और नशा नहीं करता ।वह व्यक्ति सदा सुखी रहता है ।


39


अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च।

पराक्रमश्चाबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ॥


अर्थ : बुद्धि, उच्च कुल, इंद्रियों पर काबू, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, कम बोलना, यथाशक्ति दान देना तथा कृतज्ञता – ये सभी  आठ गुण मनुष्य की ख्याति बढ़ाते हैं ।


39.


ईर्ष्यी घृणी न संतुष्टः क्रोधनो नित्यशङ्कितः।

परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुःखिताः ॥


अर्थ : - ईर्ष्यालु प्रकृति वाले, घृणा करने वाला, असंतोषी प्रकृति वाले , क्रोधी स्वभाव वाले , सदा संदेह करने वाला तथा दूसरों के भाग्य पर जीवन बिताने वाला- ये छह तरह के लोग संसार में सदा दुःखी रहते हैं ।


40


षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन। 

सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः ॥


अर्थ : - व्यक्ति को कभी भी सच्चाई, दानशीलता, निरालस्य, द्वेषहीनता, क्षमाशीलता और धैर्य – इन छह गुणों का त्याग नहीं करना चाहिए ।


41


अर्थागमो नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्य प्रियवादिनी च ।

वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या षट् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥


अर्थ : धन प्राप्ति, स्वस्थ जीवन, अनुकूल पत्नी, मीठा बोलने वाली पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र तथा धनाजर्न करने वाली विद्या का ज्ञान से छह बातें संसार में सुख प्रदान करती हैं ।


42


षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छिता । 

निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता ॥


अर्थ : - संसार में उन्नति के अभिलाषी व्यक्तियों को नींद , तंद्रा(ऊँघ), भय, क्रोध, आलस्य तथा देर से काम करने की आदत-इन छह दुर्गुणों को सदा के लिए त्याग देना चाहिए ।


43


पंचैव पूजयन् लोके यश: प्राप्नोति केवलं । 

देवान् पितॄन् मनुष्यांश्च भिक्षून् अतिथि पंचमान् ॥


अर्थ : - देवता, पितर, मनुष्य, भिक्षुक तथा अतिथि-इन पाँचों की सदैव सच्चे मन से पूजा-स्तुति करनी चाहिए । इससे यश और सम्मान प्राप्त होता है।


44.


पन्चाग्न्यो मनुष्येण परिचर्या: प्रयत्नत:। 

पिता माताग्निरात्मा च गुरुश्च भरतर्षभ ॥


अर्थ : - माता, पिता, अग्नि, आत्मा और गुरु इन्हें पंचाग्नी कहा गया है। मनुष्य को इन पाँच प्रकार की अग्नि की सजगता से सेवा-सुश्रुषा करनी चाहिए । इनकी उपेक्षा करने  से हानि होती है ।


45.


त्रिविधं नरकस्येदं द्वारम नाशनमात्मन: । 

काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥


अर्थ : - काम, क्रोध और लोभ-आत्मा को भ्रष्ट कर देने वाले नरक के तीन द्वार कहे गए हैं । इन तीनों का त्याग श्रेयस्कर है ।


46


न्यायार्जितस्य द्रव्यस्य बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ । 

अपात्रे प्रतिपत्तिश्च पात्रे चाप्रतिपादनम् ॥


अर्थ : - न्याय और मेहनत से कमाए धन के ये दो दुरूपयोग कहे गए हैं- एक, कुपात्र को दान देना और दूसरा, सुपात्र को जरूरत पड़ने पर भी दान न देना ।


47


द्वाविमौ पुरुषौ राजन स्वर्गस्योपरि तिष्ठत: । 

प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान् ॥


अर्थ : - जो व्यक्ति शक्तिशाली होने पर क्षमाशील हो तथा निर्धन होने पर भी दानशील हो – इन दो व्यक्तियों को स्वर्ग से भी ऊपर स्थान प्राप्त होता है ।


48


सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं बलम्। 

क्षमा गुणों ह्यशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा ॥


अर्थ : - क्षमा तो वीरों का आभूषण होता है । क्षमाशीलता कमजोर व्यक्ति को भी बलवान बना देती है और वीरों का तो यह आभूषण ही है ।


49


परं क्षिपति दोषेण वर्त्तमानः स्वयं तथा । 

यश्च क्रुध्यत्यनीशानः स च मूढतमो नरः ॥


अर्थ : जो व्यक्ति अपनी गलती को दूसरे की गलती बताकर स्वयं को बुद्धिमान दर्शाता है तथा अक्षम होते हुए भी क्रुद्ध होता है, वह महामूर्ख कहलाता है ।


50.


संसारयति कृत्यानि सर्वत्र विचिकित्सते।

चिरं करोति क्षिप्रार्थे स मूढो भरतर्षभ ॥


अर्थ : जो व्यक्ति अनावश्यक कर्म करता है, सभी को संदेह की दृष्टि से देखता है, आवश्यक और शीघ्र करने वाले कार्यो को विलंब से करता है, वह मूर्ख कहलाता है ।


52


अमित्रं कुरुते मित्रं, मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च । 

कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम् ॥


अर्थ :- जो व्यक्ति शत्रु से दोस्ती करता तथा मित्र और शुभचिंतकों को दुःख देता है, उनसे ईर्ष्या-द्वेष करता है और  सदैव बुरे कार्यों में लिप्त रहता है, वह मूर्ख कहलाता है ।


53.


अकामान् कामयति यः कामयानान् परित्यजेत्। 

बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम् ॥


अर्थ : - जो व्यक्ति अपने हितैषियों को त्याग देता है तथा अपने शत्रुओं को गले लगाता है और जो अपने से शक्तिशाली लोगों से शत्रुता रखता है, उसे महामूर्ख कहते हैं।


54


स्वमर्थं यः परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति। 

मिथ्या चरति मित्रार्थे यश्च मूढः स उच्यते ॥


अर्थ : - जो व्यक्ति अपना काम छोड़कर दूसरों के काम में हाथ डालता है तथा मित्र के कहने पर उसके गलत कार्यो में उसका साथ देता है, वह व्यक्ति  मूर्ख कहलाता है ।


55


आर्यकर्मणि रज्यन्ते भूतिकर्माणि कुर्वते।

हितं च नाभ्यसूयन्ति पण्डिता भरतर्षभ ॥


अर्थ : - ज्ञानीजन श्रेष्ट कार्य करते हैं । कल्याणकारी व राज्य की उन्नति के लिए कार्य करते हैं । ऐसे लोग अपने हितैषी   में दोष नही निकालते ।


56


यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे। 

कृतमेवास्य जानन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥


अर्थ :- दूसरे लोग जिसके कार्य, व्यवहार, गोपनीयता, सलाह और विचार को कार्य पूरा हो जाने के बाद ही जान पाते हैं, वही व्यक्ति ज्ञानी कहलाता है ।


57


यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः ।

समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ।।


अर्थ : - जो व्यक्ति सर्दी-गर्मी, अमीरी-गरीबी, प्रेम-धृणा इत्यादि विषय परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होता और तटस्थ भाव से अपना राजधर्म निभाता है, वही सच्चा ज्ञानी है ।


58


निषेवते प्रशस्तानी निन्दितानी न सेवते । 

अनास्तिकः श्रद्धान एतत् पण्डितलक्षणम् ॥


अर्थ :  - सद्गुण, शुभ कर्म, भगवान् के प्रति श्रद्धा और विश्वास, यज्ञ, दान, जनकल्याण आदि, ये सब ज्ञानीजन के शुभ- लक्षण होते हैं ।


59


लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता। 

पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात्तत्र संगतिम् ॥


अर्थ : - जिस स्थान पर आजीविका न मिले, लोगों में भय, और लज्जा, उदारता तथा दान देने की प्रवृत्ति न हो, ऐसी पांच जगहों को भी मनुष्य को अपने निवास के लिए नहीं चुनना चाहिए ।


60


माता यस्य गृहे नास्ति भार्या च प्रियवादिनी। 

अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम् ॥


अर्थ :- जिसके घर में न माता हो और न स्त्री प्रियवादिनी हो , उसे वन में चले जाना चाहिए क्योंकि उसके लिए घर और वन दोनों समान ही हैं ।


61


यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः। 

न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत् ॥


अर्थ :-  जिस देश में सम्मान न हो, जहाँ कोई आजीविका न मिले , जहाँ अपना कोई भाई-बन्धु न रहता हो और जहाँ विद्या-अध्ययन सम्भव न हो, ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिए ।


62


धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः। 

पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसे वसेत ॥


अर्थ : - जहां कोई सेठ, वेदपाठी विद्वान, राजा और वैद्य न हो, जहां कोई नदी न हो, इन पांच स्थानों पर एक दिन भी नहीं रहना चाहिए ।


63


दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः। 

ससर्पे गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः॥


अर्थ : - दुष्ट पत्नी , शठ मित्र , उत्तर देने वाला सेवक तथा सांप वाले घर में रहना , ये मृत्यु के कारण हैं इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं करनी चाहिए ।


64


मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च। 

दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति॥


अर्थ : - मूर्ख शिष्य को पढ़ाने पर , दुष्ट स्त्री के साथ जीवन बिताने पर तथा दुःखियों- रोगियों के बीच में रहने पर विद्वान व्यक्ति भी दुःखी हो ही जाता है ।


65


उद्योगे नास्ति दारिद्रयं जपतो नास्ति पातकम्।

मौनेन कलहो नास्ति जागृतस्य च न भयम्॥ 


अर्थ  : - उद्यम से दरिद्रता तथा जप से पाप दूर होता है। मौन रहने से कलह और जागते रहने से भय नहीं होता।


66


आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।

धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥


अर्थ : - आहार, निद्रा, भय और मैथुन– ये तो इन्सान और पशु में समान है। इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के लोग पशुतुल्य है।


67


विद्या विवादाय धनं मदाय

शक्तिः परेषां परिपीडनाय।

खलस्य साधोर् विपरीतमेतद्

ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥


अर्थ :-  दुर्जन(दुष्ट) की विद्या विवाद के लिये, धन उन्माद के लिये, और शक्ति दूसरों का दमन करने के लिये होती है बल्कि सज्जन इसी को ज्ञान, दान, और दूसरों के रक्षण के लिये उपयोग करते हैं।


68


तावत्प्रीति भवेत् लोके यावद् दानं प्रदीयते ।

वत्स: क्षीरक्षयं दृष्ट्वा परित्यजति मातरम्


अर्थ : - लोगों का प्रेम तभी तक रहता है जब तक उनको कुछ मिलता रहता है। मां का दूध सूख जाने के बाद बछड़ा तक उसका साथ छोड़ देता है।


                                  69

सर्वतीर्थमयी  माता  सर्वदेवमयः  पिता।

मातरं पितरं तस्मात्  सर्वयत्नेन पूजयेत् ।।


अर्थ :- मनुष्य के लिये उसकी माता सभी तीर्थों के समान तथा पिता सभी देवताओं के समान पूजनीय होते है। अतः उसका यह परम् कर्तव्य है कि वह् उनका अच्छे से आदर और सेवा करे।


70


उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।

न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥


अर्थ : - कोई भी काम कड़ी मेहनत के बिना पूरा नहीं किया जा सकता है सिर्फ सोचने भर से कार्य नहीं होते है, उनके लिए प्रयत्न भी करना पड़ता है। कभी भी सोते हुए शेर के मुंह में हिरण खुद नहीं आ जाता उसे खुद  शिकार करना पड़ता है।


71


परान्नं च परद्रव्यं तथैव च प्रतिग्रहम्।

परस्त्रीं परनिन्दां च मनसा अपि विवर्जयेत।।


अर्थ : - पराया अन्न, पराया धन, दान, पराई स्त्री और दूसरे की निंदा, इनकी इच्छा मनुष्य को कभी नहीं करनी चाहिए ।

                                          72


            मातृवत प्रदारेषु परद्रव्येशु  लोष्ठवत।
         आत्मवत सर्वभूतेषु य पश्यति स पण्डितः।।


अर्थ :- जो अपनी माता के समान दुसरो की माता को मानता है ,जो दूसरों के धन को मिट्टी के धेले के समान तथा जो अपनी आत्मा के समान सभी जीवों को देखता है वास्तव में वही पंडित है ।



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